एक बार फिर जनता के आक्रोश और अन्ना के नेतृत्व ने आन्दोलन का रूप लिया. भले ही सरकार ने अन्ना का अनशन तुडवा कर उनकी मात्र तीन शर्ते ही मानी. इससे एक बात तो सामने आ ही जाती है की आज भी जनता एक साथ खड़ी हो सकती है यदि सरकार अपना कर्तव्य और दैत्व भूल जाती है .
अन्ना ने भ्रस्ताचार के खिलाफ जो अभियान छेड़ निश्चय ही वो सराहनीय है. संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, और अरविन्द केजरीवाल, द्वारा इस बिल कनीक नियत से बनाया गया था. जिसे अंजाम देने के लिए उन्होंने चुना भी एक धोती कुरता पहने सर पर गांधीवादी टोपी लगाये ऐसा व्यक्ति जिसका भूतकाल साफ़ सुथरा, भ्रष्टाचार मुक्त, और सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप वाले "अन्ना हजारे" को
जिसके नेतृत्व के चलते एक बड़ी जनशक्ति और युवा शक्ति आगे पीछे खड़ी हो गई. लेकिन यहाँ पर प्रश्न उठता है की ये जन शक्ति अन्ना के उस जन लोकपाल के समर्थन में खड़ी थी या फिर भ्रष्टाचार के विरूद में. दोनों में बहुत अंतर है. क्योकि वहा कई लोग ऐसे थे जिन्हें जन लोकपाल के बारे में पता तक नहीं था. लेकिन अन्ना का आन्दोलन जन लोकपाल बिल को पास कराना था जिसे उन्होंने भ्रस्ताचार मिटाने का एक जरिया माना .
अब अगर जन लोकपाल बिल पर चर्चा करे तो मेरी नजर में इसके सकारात्मक और नकारत्मक दोनों ही पहलु है. मैय इसके कुछ ही मुद्दों पर सहमत हू. अब यदि इसके सकारात्मक पछ को देखे तब जाच और कार्यवाही की तय समय सीमा, राज्य में लोकायुक्त, समय पर काम का प्रावधान, आरोपी को उनके जुर्म के अनुरूप सजा, इसके प्रशंसनीय नियम है. लेकिन इसके नकारात्मक पछ पर जाये तो न्यायपालिका और प्रधानमंत्री को दायरे में लाना एन जी ओ को दायरे में न लाना लोकपाल की योग्यता का तय न होना, लोकपाल को आर टी आई के अंतर्गत आने पर अस्पस्स्त्ता इत्यादि पछ सोचने पर मजबूर करते है. प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को दायरे में लाकर एक व्यक्ति के हाथ में पूरी शक्ति दे देना कहा तक और कैसे सही है. क्योकि संविधान का निर्माण और शक्तियों व अधिकारों का वितरण यही सोच कर किया गया था की एक हाथ में शक्ति होने से उस शक्ति के दुरपयोग होने की अधिक सम्भावनाये रहती है. न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी यही सोचकर रखी गई थी की उसे निर्णय लेन में कोई बाध्यता न हो .
यदि लोकपाल का रुख सकारात्मक होता तब तो कोई परेशानी नहीं है लेकिन यदि उसका प्रभाव नकारात्मक हुआ तब उससे उभरने के लिए कोई विकल्प नहीं होगा या चन्द विकल्प ही बचेंगे.
वही प्राइवेट संसथान या एन जी ओ को दायरे में न लेने से यही प्रतीत होता है की हम सिर्फ सरकारी भ्रस्ताचार की बात कर रहे है इस बात पर भी कयास लगाये जा रहे है की अरविन्द केजरीवाल, किरण वेदी, मनीष सिसोधिया, अगिनिवेश इत्यादि सभी की एन जी ओ है. जिन्हें समाज में गरीबी मिटाने के नाम पर करोडो चंदा विदेश से मिलता है इसके अलावा इण्डिया अगेंष्ट करप्सन नाम की एन जी ओ ही इस आन्दोलन को वित्तीय सहायता दे थी जिसके कारन बिल में एन जी ओ को शामिल नहीं किया गया.
मिनिस्ट्री आफ होम अफेयर्स के की ऍफ़ ची क विंग ने दस्तावीज प्रस्तुत किये है की एक एन जी ओ को प्रति वर्ष ५०,०००,०० करोड़ रूपये देशी और विदेशी सहायता के रूप में मिलते है. जिसक कोई लेखा जोखा नहीं है. इस समय ऐसी ३३ लाख एन जी ओ है जिन्हें पिछले दशक में ५-६ लाख करोड़ धन मिल चुका है .
अगर विचार करे की क्या केवल यही विकल्प है भ्रस्ताचार मिटाने का या कोई और उपाय भी संभव है. जैसे न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखकर उसमे लोकपाल जैसा ही व्यक्ति हो जिसे हटाने और लाने के लिए कानून तय हो और न्यायपालिका तक पहचने का एक सहज रास्ता हो. साथ ही जन लोकपाल बिल की कुछ मांगे भी मान्य हो जैसे छेत्रिय स्तर पर भ्रस्ताचार मिटाने के लिए राज्यों में लोकायुक्त, अपराधियों की जायज सजा व जुरमाना, काम व कार्यवाही की तय समयसीमा हो. इस प्रकार का रास्ता अपनाकर शक्ति व सत्ता का विकेंद्रीकरण भी बना रहेगा और संसद और संविधान का अपमान भी नहीं होगा साथ ही मांगे मने जाने की उम्मीद रहेगी .
अब इस दौरान मीडिया के भूमिका की बात करे तो सब जानते है की आन्दोलन की कामयाबी का एक बड़ा श्रीय मीडिया को जाता है. लेकिन जिम्मेदारी के अनुरूप देखे तो क्या मीडिया का इस तरह एक पछिय रूप सही था. इस दौरान मीडिया ने कई बड़ी और जरुरी खबरों को नजरअंदाज कर दिया जैसे पूर्वी भारत में बाढ़ जैसी खबर समाज के संज्ञान में नहीं आ पाई .
मीडिया के इस प्रकार के रुख के कारणों पर जाये तो कही पिछले कुछ समय से मीडिया की नकारात्मक छवि को सुधारने और जनता की नजरो में सही ठहरने के लिए मीडिया ने इस मौके का सहारा लिया है वही ये भी आरोप लगाया जा रहा है की इस आन्दोलन को कार्पोरेट ने इसे सपोर्ट और एन जी ओ ने इसे मंच दिया और तीनो ही लोकपाल के दायरे में नहीं है
इस दौरान सरकार और पार्टियों ने तो इस मौके को वोटिंग बैंक के रूप में भुनाया है वही नेताओ ने अपनी छवि सुधरने का साधन बनाया. जैसे की ये बयान आ रहे थे की पिछड़ी जातियों का इस आन्दोलन को समर्थन नहीं प्राप्त है तो बसपा ने बिल पर चर्चा के दौरान इस पर चुप्पी साधे रखी . तो ऐसी स्थिति में हमें पूरा माहौल और हर पछ को देखकर अपना निर्णय और समर्थन देना आवयशक हो जाता है क्योकि हर निर्णय के दोनों पहलुओ का सबसे ज्यादा प्रभाव हम पर ही पड़ता है.
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