‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ ये शब्द अभी नहीं बल्कि ऐसा एक सदी का सपना हुआ करता था। नवजागरण और साम्राज्यविरोधी इस लहर में भाषाई राष्टवाद पिछली डेढ़ दो शताब्दियों की एक विश्व परिघटना है। छोटे बड़े तमाम राष्टों ने अपनी भाषाई अस्मिताओं की लड़ाई को प्राथमिकता दी और उसे ही साम्राज्य विरोध के जबरदस्त राजनीतिक आन्दोलन में तब्दील किया। लेकिन बहुभाषा भाषी बहुसांस्कृतिक देशों में राष्ट्र भाषा या किसी एक भाषा को सर्वज्ञ सम्मान मिलना मुश्किल काम है। भारत भी बहुभाषा भाषी और बहुसांस्कृतिक दृष्टि दोनों गुणों से संपन्न राष्ट्र है। ऐसे में किसी एक भाषा का यहां पैर जमाना मुश्किल पड़ जाता है। अगर हम बात करते हैं हिन्दी भाषा की, जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा पहले ही मिल चुका है। उसे आज वैश्विक स्तर पर सम्मान दिलाने की बात चल रही है और इसके लिये भरसक एवं वाजिब प्रयास भी किये जा रहे हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में ये माना गया है कि अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैठ जमानी है, तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर पकड़ बनाना जरुरी होता है।
पिछले कई सालों से हिन्दी की इस अस्तित्व की लड़ाई कई पीढ़ियों ने लड़ी और जो अब भी जारी है। स्वतंत्रता के समय गांधीजी ने हिन्दी भाषा के अस्तित्व पर चिंता जताते हुये कहा था.
‘‘दुनिया से कह दो-गांधी अंग्रेजी नहीं जानता.........सारे संसार में भारत ही अभागा देश है जहां सारा कारोबार एक विदेशी भाषा में होता है......तो आइये हम प्रण करें कि हम अपना अधिकतम कार्य हिन्दी भाषा में करेंगे........स्वदेश , स्वराज्य और स्वभाषा का सम्मान रखेंगे । ’’ और इस गतिषील परिदृष्य में भी भाषा के अस्तित्व की समस्या कुछ खास कम न होने पर रामविलास शर्मा ने कहा है,
‘‘सांस्कृतिक विकास के लिये सबसे पहले सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्यो में भारतीय भाषाओं का व्यवहार होना चाहिए। भारत में अनेक शिक्षा आयोग गठित किये गये, उन सबने कहा कि शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषायें होनी चाहिए, परंतु विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा का माध्यम अभी तक अंग्रेजी बनी हुई है। विद्वान अपने अखिल भारतीय सम्मेलन करते हैं, तो अंग्रेजी में भाषण करते हैं। उनके शोधपत्र अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं। यदि उनके निबंध विदेशी पत्रिकाओ में प्रकाशित होते हैं तो वे और भी सम्मानित समझे जाते हैं। लोग लाखों रुपये खर्च करके विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित करते है, वहां हिन्दी को विष्वभाषा बनाने का बीड़ा उठाते हैं। यदि वे केवल दिल्ली विश्व विद्यालय की ‘वास्तविक’ राष्टभाषा और विष्वभाषा बन जायेगी। ’’
ये सच्चाई है की संविधान सभा की निर्णायक बैठक में सिर्फ एक मत से हिंदी को सर्व मत सम्मान हासिल हुआ। इसलिए खुद गुजराती भाशी होते हुए भी उन्होंने हिंदी सीखी और पूरे देश को सिखाने का बीड़ा उठाया। दक्षिण में हिंदी प्रचार सभा ने साम्राज्य विरोधी राष्ट्रीय एकता व एकजुटता की एक लहर सी पैदा कर दी।
डाक्टर रामविलास शर्मा ने इस सम्बन्ध में कहा है कि हिंदी भाषा को लेकर १९४५-१९४६ के दौरान गाँधी जी के विचारो में परिवर्तन आया। जब उन्होनें देखा की अंग्रेजो को खदेड़ने के लिए मुस्लिम लीग से समझौता करना पड़ेगा तब उन्होंने राजनीति में इस्तेमाल की जाने वाली समझौते की नीति को भाषा के क्षेत्र में लागू किया।
अगर वर्तमान परिदृश्य की बात करे तो शासक वर्ग चरित्र में आज भी कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ है। किन्तु सामाजिक स्तर पर पिछड़े ,दलितों ,स्त्रियों आदि तबको में हिन्दी को लेकर उभार आया है। और आजादी के बाद के इन ६४ सालो में और वो भी मंडल रिपोर्ट लागू करने के बाद शासन स्तर पर भी अंग्रेजी के प्रति कुछ मोह कम हुआ है और हिंदी की स्वीकारिता बढ़ी है।
और सरकार भी खुद जागरूक होने के साथ साथ समाज को भी इस क्षेत्र में जागरूक करने का बीड़ा उठा लिया है। इसके लिए उसने हिंदी को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त नियम भी बनाये है। जैसे सरकारी काम काज के लिए मंत्रा राजभाषा सॉफ्टवेर, हिंदी सीखने वालों के लिए राजभाषा की वेबसाइट पर उपलब्धता, इ-महाशब्द कोष आदि. वहीँ प्राइवेट कंपनी भी अपनी तरीके से हिंदी पर अपनी पकड़ बना रहा है जिसके लिए गैजेट्स, मोबाइल में हिंदी माध्यम की सुविधा, गूगल ट्रांसलेटर और इ पेपर्स की सुविधा की सुविधा प्रदान की है और बाकी प्रयास जारी है
वहीं हिंदी भाषी भाषाई के प्रोत्साहन के लिए सरकार ने राज्य राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम पुरस्कारों की भी व्यवस्था भी की है। प्रदेश स्तर पर साहित्य अकादमी ने मध्य प्रदेश लेखकों के लिए दो पुरस्कारों की योजना बनाई है।
1- मैथिलीशरण गुप्त अवार्ड एवं २ लाख रूपये।
2- शरद जोशी सम्मान एवं १ लाख रूपये।
वही राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने भी हिंदी लेखन के लिए पुरस्कारों की व्यवस्था की है।
पहला अहिन्दी भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार व १ लाख रुपया।
दूसरा शोध के लिए अनुदान - इसमें हिंदी में शोध कार्य करने के लिए ३ यूनिवर्सिटीज् में जाने का भत्ता व डीए दिया जाता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय स्कोलरशिप की व्यवस्था भी की है, जिसके निम्न दो उदाहरण हैं-
१-फुल ब्राइट फारेन लैंग्वेज टीचिंग असिस्टेंन्ट्स प्रोग्राम- युनाइटेड स्टेट इण्डिया एजुकेशनल फाउण्डेशन यह प्रोग्राम चलता है। इसमें यू.एस. की कुछ यूनिवर्सिटीज् शामिल हैं। यहाँ हिंदी पढ़ाने का इच्छुक कोई भी शिक्षक जा सकता है उसे वेतन के साथ साथ रहने व आने जाने का किराया भी उपलब्ध कराया जायेगा।
२-टेक्सास यूनिवर्सिटी -इसमें रिसर्च करने के इच्छुक लोग यदि योग्य है तो उन्हें १००प्रतिशत स्कालरशिप मिलेगी।
इन सबके अलावा राजीव गाँधी हिंदी लेखन पुरस्कार की भी व्यवस्था की गई है जो कार्यरत और सेवा निवृत्त शासकीय अधिकारी एवं कर्मचारी को हिंदी लेखन के लिए दिया जाता है जिसमे कम से कम १०० पेज की किताब हिंदी साहित्य को छोड़कर होनी चाहिए। इसमें ४ पुरस्कारों की व्यवस्था है। प्रथम को ४० हजार, दितीय को ३० हजार और तृतीय को २० हजार एवं प्रोत्साहन पुरस्कार के तौर पर १० हजार रूपये देने की व्यवस्था है।
..अगर सरकार और समाज के इस प्रकार के प्रयास लगातार किये जाते रहे तो हिंदी का खोया हुआ स्थान और सम्मान वापस मिलने के आसार लगाये जा सकते हैं।
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