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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

क्या वाकई जरूरी थी ये लड़ाई?


कोई भी मांगें बिना किसी लड़ाई के भी पूरी हो सकती हैं अगर तत्कालीन सरकारों द्वारा सही समय पर उचित निर्णय ले लिया जाय। इसी प्रकार अभी हाल ही में गुर्जर आन्दोलन के नाम से पनपी एक लड़ाई की बात करें, तो अशोक गहलोत की सरकार की भांति लिये गये निर्णय यदि वसुधंरा राजे के समय ही ले लिये गये होते, तो ये लड़ाई दोबारा न पनपती। मगर राजे सरकार ने गुर्जर समुदाय के अनुसूचित जनजाति में शामिल  किये जाने के वादे किये, जिससे गुर्जरों को जाट के बराबर सुविधायें उपलब्ध हो सकें परंतु वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री बनते ही राजे सरकार द्वारा यह मुद्दा पर विवादास्पद होने की वजह से इस पर कोई कदम नहीं उठाया। वहीं गुर्जरों द्वारा आंदोलन करने पर उन पर गोलियां चलवाने को आदेश  दे दिया, जिसमें 58 लोग मारे गये। जिसके बाद उन्होंने गुर्जरों के लिये सरकारी नौकरियों में 5 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी। फिर अशोक  गहलोत की सरकार बनते ही उन्होंने संवैधानिक दायरे के अन्तर्गत एक फीसदी आरक्षण को लागू कर दिया। बाकी 4 फीसदी आरक्षण पर न्यायालय के फैसले के आने के बाद विचार करने का वादा किया।
  तो ऐसे मुश्किल  समय में सरकारों द्वारा जनता को अपनी बातों से संतुष्ट करना महत्वपूर्ण होता है। जरूरी नहीं उनकी गलत बात को भी मानें बल्कि उन्हें अपनी बात कहने का मौका दें और वहंी सही वक्त आने पर उन पर अमल किया जाय। अन्यथा खामियाजा सरकार से कहीं ज्यादा जनता को भुगतना पड़ता है क्योंकि सरकार को तो केवल विरोध झेलना पड़ता है लेकिन उनके बीच की जनता को उनके बीच रहकर उनके गुस्से का सामना भी करना पड़ता है।

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