30 जनवरी, 2011 की दोपहर होते ही, सडको पर सन्नाटा, सारी दुकानें बंद, बीच-बीच में कभी कभी गाड़ियों की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। ऐसा लग रहा था कि कोई बड़ा फैसला सुनाया जाने वाला हो या किसी और महत्वपूर्ण निर्णय का इंतजार हो। लेकिन वास्तव में ये षांति उस षोर का इंतजार कर रही थी जो इंडिया के जीतने के बाद गूंज उठने वाला था और ये जीत इसलिये महत्वपूर्ण थी, क्योंकि ये जीत पाकिस्तान के खिलाफ वर्ल्ड कप के सेमीफाइनल के लिये थी।
मैच का ये जज़्बा न ही नया है और न ही गलत, परन्तु इस जज्बे और जोष के आगे देष और उसकी जरूरतों को नज़रअंदाज करना कहां तक सही है। यहां कितने लोगों को रुचि है कि भारत आने पर गिलानी से 26/11 के कैदियों के बारे में बात की जाय क्योंकि उन लोगों को अभी सजा नहंीं हुई है या फिर मनमोहन और गिलानी के बीच दोनों देषों के बीच संबंधों के सुधार को लेकर या और कोई औपचारिक वार्ता हो। क्योंकि केवल साथ बैठकर मैच देखने से किस तरह संबंधों में सुधार होगा! किसी ने इस संबंध में सोचकर वक्त ज़ाया करना जरुरी नहंी समझा। ‘‘अगर पाकिस्तान के राष्टपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री गिलानी षांति के नाम पर मोहाली पर मैच देखने आ सकते हैं तो मुंबई हमले के दोषी कसाब और संसद पर हमले के जिम्मेदार अफजल गुरु के साथ नाइंसाफी क्यों?’’ बाल ठाकरे के इस बयान के बाद भी कोई संतोषजनक निर्णय न लेना इस वाकये को सही ठहरा रहा है।
Acha likha hai,isse achi baat ye hai ki is topic pr turnt likhna tarif ke kabil hai.
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