स्वतंत्रताप्राप्ति से लेकर अब तक नेताओं के भाषण से भ्रष्टाचार दूर करने के वादे अलग नहीं रहते। तब से कितनी सरकारें आईं और गईं लेकिन कया वाकई स्थिति में कोई सुधार हुआ शायद नहीं! जिसमें प्रशन उठता है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? भ्रष्टाचार फैलाने वाले लोग,जिसमें अधिकतर लोग शासन से जुड़े होते हैं अथवा उन्हें प्रशासन या किसी उच्चाधिकारी या किसी नेता का संरक्षण प्राप्त होता है या फिर भ्रष्टाचार को न रोकने वाले लोग, जो अप्रत्यक्ष रूप से इसका फायदा उठाते है। लेकिन इससे प्रभावित कौन होता है हम या आप?
अगर सरकार के फैसलों की बात करें, तो अब तक मात्र 6 प्रतिशत मामलों में सजा हुई है, बाकी 94 प्रतिशत दोषी सबूतों के अभाव में बच निकलते हैं। सबूतों के अभाव का प्रमुख कारण है, हमारे संविधान का गलत उपयोग। नियमों के अनुसार संवैधानिक पद पर आसीन अभियुक्त से जुड़े आपराधिक मामले की कार्यवाही नहीं हो सकती। वर्ष 2008 में भ्रष्टाचार उन्मुलन को प्राथमिकता देने की बजाय भारतीय दंड संहिता संषोधन विधेयक ये कहकर पारित किया गया, कि पुलिस अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 41 का दुरूप्योग कर रही है, जिस पर तीखी प्रतिक्रिया भी हुई।
देश घोटालों से भरा पड़ा है, जैसे उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती घोटाला, जिसमें अठारह हजार छह सौ सिपाहियों और चौबीस आईपीएस अधिकारियों को बर्खास्त और निलंबित किया गया था। इसी प्रकार बिहार में बाढ़ पीड़ित सहायता और पुलिस वर्दी घोटाला 1989 में सामने आया, वहीं देश का 70 लाख करोड़ रूपया विदेशी बैंको में है, जिसे वापस लाने को लेकर कोई संतोषजनक कदम नहीं उठाया गया और जा रहा है। वहीं मंत्रियों और उच्चाधिकारियों के अलावा न्यायालय में भी भ्रष्टाचार के मामले सामने आये। जैसे; गाजियाबाद का भविष्यनिधि घोटाला, इलाहाबाद का उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार को लेकर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी, पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय से संबंधित 15 लाख नकद रिश्वत का मामला, न्यायाधीश सोमित्र सेन से जुड़ा मामला आदि। लेकिन ऐसे मामलों के खिलाफ पहले तो कदम उठाया नहीं जाता और जो कदम उठाता भी है, उसे मौत को गले लगाना पड़ाता है जैसे; अमित जेठवा।
इन सब बातों से साफ जाहिर होता है, कि भ्रष्टाचार के बढ़ते कदमों के पीछे यदि जनता के लोगों को उसका दोषी माना जाता है, तो कहीं न कहीं इसके खिलाफ कोई कदम न उठाकर उसको बढ़ावा दे रहा है।
अगर सरकार के फैसलों की बात करें, तो अब तक मात्र 6 प्रतिशत मामलों में सजा हुई है, बाकी 94 प्रतिशत दोषी सबूतों के अभाव में बच निकलते हैं। सबूतों के अभाव का प्रमुख कारण है, हमारे संविधान का गलत उपयोग। नियमों के अनुसार संवैधानिक पद पर आसीन अभियुक्त से जुड़े आपराधिक मामले की कार्यवाही नहीं हो सकती। वर्ष 2008 में भ्रष्टाचार उन्मुलन को प्राथमिकता देने की बजाय भारतीय दंड संहिता संषोधन विधेयक ये कहकर पारित किया गया, कि पुलिस अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 41 का दुरूप्योग कर रही है, जिस पर तीखी प्रतिक्रिया भी हुई।
देश घोटालों से भरा पड़ा है, जैसे उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती घोटाला, जिसमें अठारह हजार छह सौ सिपाहियों और चौबीस आईपीएस अधिकारियों को बर्खास्त और निलंबित किया गया था। इसी प्रकार बिहार में बाढ़ पीड़ित सहायता और पुलिस वर्दी घोटाला 1989 में सामने आया, वहीं देश का 70 लाख करोड़ रूपया विदेशी बैंको में है, जिसे वापस लाने को लेकर कोई संतोषजनक कदम नहीं उठाया गया और जा रहा है। वहीं मंत्रियों और उच्चाधिकारियों के अलावा न्यायालय में भी भ्रष्टाचार के मामले सामने आये। जैसे; गाजियाबाद का भविष्यनिधि घोटाला, इलाहाबाद का उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार को लेकर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी, पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय से संबंधित 15 लाख नकद रिश्वत का मामला, न्यायाधीश सोमित्र सेन से जुड़ा मामला आदि। लेकिन ऐसे मामलों के खिलाफ पहले तो कदम उठाया नहीं जाता और जो कदम उठाता भी है, उसे मौत को गले लगाना पड़ाता है जैसे; अमित जेठवा।
इन सब बातों से साफ जाहिर होता है, कि भ्रष्टाचार के बढ़ते कदमों के पीछे यदि जनता के लोगों को उसका दोषी माना जाता है, तो कहीं न कहीं इसके खिलाफ कोई कदम न उठाकर उसको बढ़ावा दे रहा है।