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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

सूचना के अधिकार को खोखला करने की कोशिस

हम उस लोक्तान्तिक देश में रहते हैं जहाँ पर हर सख्क्स को अपनी बात कहने और किसी बात को जाने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है और इसी आजादी के तहत राजस्थान के भुग्तभोगी किसानो द्वारा सर्वप्रथम उस समय अपनी सरकार के खिलाफ सूचना दाने के सम्बन्ध में एक आन्दोलन को जनम दिया गया जब १९९० में वहां की सरकार ने अपने वायदों से परे उन्हें कार्य के बदले मजूरी देने के सम्बन्ध में धोखा दिया था। बहरहाल किसानो के अथक प्रयासों के बात ५ वर्ष पूर्व हमें यह अधिकार प्राप्त हो सका है। सूचना का अधिकार अधिनियम जम्मू और कश्मीर को चोअद्कर पूरे देश को समर्पित है।
वैसे इस देश रीती भी भुत अजीब है जब कभी कोई सकारात्मक विचारधारा समाज में पनपना शुरू ही करती है तभी हजारों हाँथ उसे काटने के लिए खड़े हो जाते है। वही जब बात संविधानी जनतंत्र की आती है तो यह हमेशा देखने को मिलता है की एक हाँथ से जहाँ लोगों को तमाम तरह के अधिकार मुहैया कराये जाते है वहीँ दूरारे हाँथ से उन्हें छीनने के तमाम जतन भी शुरू हो जाते हैं और ऐया ही कुछ कार्मिक मंत्रालय क़ानून संसोधन की आड़ लेकर सूचना के अधिकार को खोखला करने की कोशिस कर रहा है। मंत्रलय के अपने पहले प्रस्तावित संसोधन में यह मांग की की वो उन आवेदनों के चयन के लिए बाध्य नही होगा जो अर्थपूर्ण नही होंगे। अगर ये संशोधन लागू हो गया तो यह तये है की अगर कोई नागरिक अपने जान की रक्षाअपनी, राशन की दूकान में राशन न होने अपने इलाके की सड़क न बन्ने विकास कार्यों में काम करने के बावजूद म्स्त्टर रोल में दर्ज अपनी मजूरी न मिलने अपने गाव अपने शहर में खर्च सरकारी रकन के बारे में कोई जानकारी चाहे गा तो उसके आवेदन को ख़ारिज करते समय इस विभाग के आलाल्धिकारियों के हाँथ नही कांपेंगे। उधर अपने दूसरे प्राश्तावित संसोधन में फाइल नोटिंग दखने के नागरिक के उस अधिकार को छीनने की बात कही गई जिसके तहत देश का प्रत्येइक यह जान सकता है की कोई सरकारी निर्णय सही और तर्कसंगत आधार पर जनता के हित में लिया गया है या फिर उसके पीछे भी भ्रश्त्ताचार जैसे असंगत और स्वहित वाले आधार है। मंत्रालय का यह रवैया तब है जब वह स्वयं अपने एक अध्धयन यह कहता है की १०४ करोर की इस आबादी वाले देश में मात्र १५ प्रतिशत ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने अबतक इस अधिकार के तहत सिर्फ़ इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है की ये नौकर शाही अपने कर्तव के पार्टी कितने समर्पित है। जो मात्र १५ प्रतिशत भारतियों की जवाब देहि से कतरा रहे हैं। उधर एक परिवर्तन का चौका देने वाला आकडा से भी बता है की इन १५ प्रतिशत लोगों में भी मात्र १/४ यानी २७ फिश्दी ऐसे व्यक्ति हैं जो संतोष प्रद उत्तर हासिल कर पायें है। मैं अपनी इस बात को यहीं ख़त्म करते हुए मैं एक प्रशन आप लोगों से करना चाहता हूँ की अगर वास्तव में सूचना का अधिकार कानून देश में पारदर्शिता और स्वचंदिता स्थापित करने के इरादे से जनता को मुहैया कराया गया हैं तो क्या वास्तव में इन शंसोधानो के बाद देश में पारदर्शिता व सव्चंदिता स्थापित करने का सपना पूरा हो पायेगा? मेरी इस बात पर भी विशेस ध्यान दीजियेगा - एक रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक सरकार ने पिचले वर्ष २००८ में ५० हजार से अधिक मामलों पर आदेश जारी कर सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत सूचनाएँ प्रदान करने में प्रथम स्थान प्राप्त किया है तो आखिर हम में ऐसी क्या कमी है जो हम इस अधिकार का उपयोग नही कर पा रहे हैं और नौकर शाही उन गिनेचुने आवेदनों का भी जवाब देने को तैयार नही है।

"हम वो किसान हैं जो अपनी फसल ख़ुद तैयार करते हैं ख़ुद काटते हैं और ख़ुद उस अनाज को पाकर खाते है तो अगर इस प्रकिरिया में कोई अव्यवस्थ पैदा होती है तो उसके भी जिम्मदार हम स्वयं होंगे "