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शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

धनपतराय से मुंशी प्रेमचंद तक


समाज में जिन्दा रहने में लोग जितनी कठिनाइयों का सामना करेगें उतना ही गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होगें तो समाज में अच्छाई ज्यादा होगी और समाज में गुनाह नही के बराबर होगा। प्रेमचंद ने  शोशित वर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज़ लगाई ‘‘ऐ लोगों जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिंदों की तरह रहो, मुर्दों की तरह जिंदा रहने से क्या फायदा!’’ 
मुंशी  प्रेमचंद भारत के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। जिनके युग का विस्तार सन् 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व का है। इस युग में भारत में स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। वह एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, जिम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। समाज में सदा वर्गवाद व्याप्त रहा है। समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को किसी न किसी वर्ग से जुड़ना ही होता है। प्रेमचंद ने वर्गवाद से लड़ने के लिये ही सरकारी पद से त्यागपत्र दिया। वह इससे संबंधित बातों से उन्मुख होकर लिखना चाहते थे। इसके अलावा और भी कई ऐसी कुरीतियां, जो समाज में हमेशा  से व्याप्त रही हैं। उन्हें दूर करने के लिये उन पर आधारित कहानियां और उपन्यास प्रेमचंद्र ने लिखे।
         
जन्मः वाराणसी से लगभग चार मील दूर, लमही नामक गांव में 1880 में एक बालक का जन्म हुआ। जो अपने अलग-अलग कार्यों के अनुरुप रखे गये नामों से जाना गया। इनकी माता आनंदी देवी और पिता मुंशी  अजायब लाल ने अपने इस पुत्र का नाम धनपतराय 
श्रीवास्तव रखा। धनपतराय एक दरिद्र कायस्थ परिवार में जन्में थे।
बचपन में ही मां की मृत्यु, फिर सौतली मां का दुव्र्यव्हार, उसके बाद छोटी उम्र में शादी फिर तलाक, तलाक के बाद पश्ताताप के लिये एक विधवा से शादी!! बचपन से शुरु और जीवन पर्यन्त साथ चलने वाली ऐसी ही घटनाओं ने उन्हें लिखने के लिये बाधित किया साथ ही उनके लेखन में सजीवता का पुट दिया। धनपतराय की कहानी ‘‘कजा़की’’ उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है।

धनपतराय से नवाबरायः धनपतराय ने सरकारी सेवा में रहते हुये ही कहानी लिखना प्रारंभ कर दिया था। तब वे धनपतराय से नवाबराय नाम से पहचाने जाने लगे। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त इसी नाम से जानते रहे। जब सरकार ने उनका पहला कहानी-संग्रह ‘‘सोजे-वतन’’ जब्त किया। तब उन्हें नवाबराय नाम छोड़ना पड़ा।

नवाबराय से प्रेमचंदः नवाबराय से अपना साहित्यिक जीवन प्रारंभ करने वाले धनपतराय ने कई सालों बाद प्रेमचंद नाम अपनाया था। उपन्यास सम्राट का साहित्यिक नाम प्रेमचंद था।
      प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी  कब और कैसे जुड़ा? इस विषय में अधिकांश  लोग यही मान लेते हैं कि प्रारंभ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्रायः उस समय मुंशी  कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरुप ‘मुंशी’ शब्द लगाने की परंपरा रही है।    

 साहित्यिक जीवनः शायद कम ही लोग जानते हैं कि प्रख्यात कथाकार मुंशी  प्रेमचंद अपनी महान रचनाओं की रुपरेखा पहले अंग्रेजी में लिखते थे और उसके बाद उसे हिन्दी अथवा उर्दू में अनुदित कर विस्तारित करते थे। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृश्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण आदि की रचना की। प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में ‘बड़े घर की बेटी’, ‘सौत’, ‘सज्जनता का दंड’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘नमक का दरोगा’, ‘परीक्षा’ और ‘उपदेश ’ प्रमुख हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में जनसाधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। 

क्रांतिकारी लेखकः प्रेमचंद की पहली रचना उर्दू लेख ‘ओलिवर क्रामवेल’, बनारस के उर्दू साप्ताहिक ‘आवाज-ए-खल्क’ में 1 मई, 1903 में छपा। जब वे 23 वर्श के थे। कहानी के क्षेत्र में उनका पहला उर्दू कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ 1908 में प्रकाशित हुआ, जो कुछ घटनाओं के कारण ऐतिहासिक महत्त्व का बन गया। सोजे-वतन की देश प्रेम की कहानियों को ब्रिटिश  सरकार ने ‘राजद्रोहात्मक’ माना और उसे जब्त करके बची प्रतियों को जला दिया। प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने में इसी घटना का योगदान था।
तब भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था, तब उन्होंने कथा-साहित्य द्वारा हिन्दी और उर्दू भाषाओं में जो अभिव्यक्ति दी, उससे सियासी सरगर्मी और आंदोलन को उभारा और ताकतवर बनाया। 1936 में उन्होंने प्रगतिषील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रुप में संबोधित किया था। उनका यही भाशण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक परंपरा को जन्म दिया और एक पूरी पीढ़ी उनके कदमों पर आगे बढ़ी। 50-60 के दषक में रेणु, नागार्जुन और इनके बाद श्रीनाथ सिंह में ग्रामीण परिवेश  की जो कहानियां लिखी, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं। प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे। उन्होने  न केवल देश भक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से लोगों के समक्ष रखा।
   सन् 1931 में रचित प्रेमचंद की महान रचना ‘‘कर्मभूमि’’ के बारे में लाहौर में कांग्रेस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरु ने घोषित किया था,‘‘कि कर्मभूमि इस अपात काल की प्रतिध्वनियों से भरा हुआ उपन्यास है। गोर्की के उपन्यास ‘मां’ के समान यह उपन्यास भी क्रांति की कला पर लगभग एक प्रबंध ग्रंथ है। यह उपन्यास अद्भुत पात्रों की एक संपूर्ण श्रृंखला प्रस्तुत करता है।’’ ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ जैसे उपन्यास पर विश्व  के किसी भी कृतिकार को गर्व होगा। अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ लिखना प्रारंभ किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह पूरा नहीं हो सका। 
  प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में देश -प्रेम की यह स्थिति प्रचुर मात्रा में दिखाई देती है। गांधी की प्रेरणा से सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद प्रकाशित उनके प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि आदि उपन्यासों में गांधी के हदय-परिवर्तन, सत्याग्रह, ट्रस्टीशिप, स्वदेशी, सविनय अवज्ञा, राम-राज्य, औद्योगीकरण का विरोध तथा कृषि जीवन की रक्षा, ग्रामोत्थान एवं अछूतोद्धार, अहिंसक आंदोलन, हिंदू-मुस्लिम एकता, किसानों -मजदूरों के अधिकारों की रक्षा आदि का विभिन्न कथा-प्रसंगों तथा पात्रों के संघर्ष में चित्रण हुआ है।   

प्रेमचंद के सम्मान में जारी डाक टिकटः मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्रदाहिनी ओर दिया गया है। यहां उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्सें को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे अमृतराय ने ‘कलम के सिपाही’ नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेजी व उर्दू रुपांतर तो हुए ही हैं, चीनी,रुसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियां लोकप्रिय हुई हैं।

मृत्युः प्रेमचंद के अंतिम दिन वाराणसी और लखनऊ में बीते, जहां उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर से उनका देहावसान हो गया। 

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