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शनिवार, 9 अप्रैल 2011

नवउदारवादी समाज में पनपता एक और गांधी

कम से कम इस समय तो इन्हें किसी परिचय की आवष्यकता नहीं है। जबकि पूरा समाज इनके समर्थन में है। जी हां यहां कि मीडिया ने भी अन्ना की आंधी में उड़े नेता, अन्ना के आगे झुकी सरकार और इनके द्वारा लड़ी जाने वाली लड़ाई को आजादी की दूसरी लड़ाई की संज्ञा देकर ‘किसन बाबूराव हजारे’ के समर्थन में अपना मत व्यक्त किया है। 40 रूपये में फूल बेचने से ड्राइवर बनने तक की कठिन यात्रा तय करने के बाद वर्तमान में अन्ना हजारे एक समाजसेवक हैं, जिनकी मंषा लोकतंत्र को जनलोकतंत्र बनाने की रही है। भारत पाक युद्ध में मौत को धता देने वाले हजारे सरकार को भी अपनी बात मनवाने में सफल हो गये हैं। लेकिन यहां अगर दूसरा पक्ष देखें, जो षायद उन मंत्रियों और सांसदों का पक्ष होगा। जोकि हम-आपके द्वारा चुनकर भेजे जाते हैं। तो लगता है कि ऐसी लड़ाईयों के पीछे कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि जब ये मंत्री और सांसद हमारे द्वारा ही चुनकर भेजे जाते हैं, तो बाद में इन्हें हटाने या इनके खिलाफ जांच के लिये लोकपाल बिल पारित करने के लिये कैंडिल मार्च, भूख हड़ताल और अनषन की आवष्यकता क्यों पड़ती है? 
 ये पूरा विवाद था लोकपाल बिल के बारे में, जिससे जनता और प्रषासन के बीच टकराव पैदा हो रहा हैै। इसके दो पक्ष हैं-एक जनता का लाभ और दूसरा सरकार के लिये चुनौती।
इस विधेयक में केन्द्र में लोकपाल और राज्य में लोकायुक्त होगा। ये संस्था निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह स्वतंत्र होगी, जिससे किसी भी नेता या उच्चाधिकारी के खिलाफ जांच और बर्खास्तगी संभव हो पायेगी। इसके अलावा भ्रष्टाचारियों से मुआवजे के तौर पर धनवापसी भी हो सकेगी। इन मुख्य सुविधाओं के अलावा भ्रष्टाचार को रोकने लेकिन एक तरीके से सरकार के खिलाफ तमाम व्यवस्थायें हैं।
ये सारी चीजें कहीं से गलत नहंी हैै। लेकिन प्रषासन के लिये ये चुनौती क्यों साबित हो रही है? क्योंकि यहां पर सरकार की छवि पर एक तरह से प्रष्नचिन्ह लग जा रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि बाद में किसी भी प्रकार की कार्यवाही की जगह चुनाव प्रक्रिया में सुधार और भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ मांग की जाने चाहिये थी! लेकिन ये मांग क्यों और कौन करेगा? क्योंकि इसके लिये सीधे हम जिम्मेदार होगें और हम अपने ही लिये क्यों मांग करेगें ? इसके लिये सरकार केवल नियम और कानून बना सकती है, जिसका पालन कितना होता है, सब जानते हैं। वो इस प्रकार का कोई विरोध नहंी करती, क्योंकि षायद वो जानती है, कि इसके चलते हमारे देष पर भी मिश्र और ट्वीनीषिया जैसी लड़ाईयों का धब्बा लगता है और ये सोचना पड़ेगाा कि इस प्रकार के कदमों से देष और प्रषासन की विष्व में छवि की क्षति के लिये फिर हम किस देष में धरना प्रदर्षन करेगें?

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

बेटियों के बिना होगा विकास?

बेटो की भीड़ में बेटी अकेली
बेटे के जन्म पर ढोलक बजना और बेटी के जन्म पर अफसोस करने जैसी बातें आपने पहली बार नहीं सुनी होगी, लेकिन ये नया जरूर है कि आज भी देष में ऐसी ही सोच अपनी जगह बनाये हुये है। अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर हुई जनगणना में भले ही साक्षरता दर में वृद्धि होकर 75 प्रतिषत हो गई हो और जनसंख्या वृद्धि में कमी आई हो। लेकिन सोच आज भी वही पुरानी है, कि पुरूष महिलाओं से श्रेष्ठ होते हैं। इसका प्रमाण भी सामने आया है कि हर 1000 बेटों पर 914 बेटियां का जन्म होंता है। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर यदि महिलाओं का स्थान देखें तो वो हर 1000 पुरूषों पर 940 महिलायें हैं। देष में बिहार, गुजरात और जम्मू कष्मीर में पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या सबसे कम है। सरकार को यहां गौर करना चाहिये कि उनके द्वारा बनाई गई लाडली लक्ष्मी योजना, परिवार नियोजन जैसी तमाम योजनायें केवल बनाने मात्र से कोई हल नहीं निकलने वाला है, बल्कि उसे पालन कराने की आवष्यकता भी है। ये स्थिति देष के स्वतंत्र के बाद से षुरू हो गई थी। इसका मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि देष ने इसी सोच के साथ विकास के दौर में कदम रखा था, जिसका पालन वो आज भी कर रहा है। यदि स्थिति में जल्द ही कोई परिवर्तन नहंी हुआ तो भारत माता के नाम से पुकारे जाने वाले भारत में मातायें ही नहीं बचेगीं।