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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

भ्रष्टाचार बनाम भारत,जिम्मेदार कौन-जनता या प्रशासन ?

स्वतंत्रताप्राप्ति से लेकर अब तक नेताओं के भाषण से भ्रष्टाचार दूर करने के वादे अलग नहीं  रहते। तब से कितनी सरकारें आईं और गईं लेकिन कया वाकई स्थिति में कोई सुधार हुआ शायद  नहीं! जिसमें प्रशन  उठता है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? भ्रष्टाचार फैलाने वाले लोग,जिसमें अधिकतर लोग शासन   से जुड़े होते हैं अथवा उन्हें प्रशासन  या किसी उच्चाधिकारी या किसी नेता का संरक्षण प्राप्त होता है या फिर भ्रष्टाचार को न रोकने वाले लोग, जो अप्रत्यक्ष रूप से इसका फायदा उठाते है। लेकिन इससे प्रभावित कौन होता है हम या आप?
       अगर सरकार के फैसलों की बात करें, तो अब तक मात्र 6 प्रतिशत  मामलों में सजा हुई है, बाकी 94 प्रतिशत  दोषी सबूतों के अभाव में बच निकलते हैं। सबूतों के अभाव का प्रमुख कारण है, हमारे संविधान का गलत उपयोग। नियमों के अनुसार संवैधानिक पद पर आसीन अभियुक्त से जुड़े आपराधिक मामले की कार्यवाही नहीं हो सकती। वर्ष 2008 में भ्रष्टाचार उन्मुलन को प्राथमिकता देने की बजाय भारतीय दंड संहिता संषोधन विधेयक ये कहकर पारित किया गया, कि पुलिस अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 41 का दुरूप्योग कर रही है, जिस पर तीखी प्रतिक्रिया भी हुई।
    देश  घोटालों से भरा पड़ा है, जैसे उत्तर प्रदेश  पुलिस भर्ती घोटाला, जिसमें अठारह हजार छह सौ सिपाहियों और चौबीस आईपीएस अधिकारियों को बर्खास्त और निलंबित किया गया था। इसी प्रकार बिहार में बाढ़ पीड़ित सहायता और पुलिस वर्दी घोटाला 1989 में सामने आया, वहीं देश  का 70 लाख करोड़ रूपया विदेशी  बैंको में है, जिसे वापस लाने को लेकर कोई संतोषजनक कदम नहीं उठाया गया और जा रहा है। वहीं मंत्रियों और उच्चाधिकारियों के अलावा न्यायालय में भी भ्रष्टाचार के मामले सामने आये। जैसे; गाजियाबाद का भविष्यनिधि घोटाला, इलाहाबाद का उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार  को लेकर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी, पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय से संबंधित 15 लाख नकद रिश्वत  का मामला, न्यायाधीश  सोमित्र सेन से जुड़ा मामला आदि। लेकिन ऐसे मामलों के खिलाफ पहले तो कदम उठाया नहीं जाता और जो कदम उठाता भी है, उसे मौत को गले लगाना पड़ाता है जैसे; अमित जेठवा।
     इन सब बातों से साफ जाहिर होता है, कि भ्रष्टाचार के बढ़ते कदमों के पीछे यदि जनता के लोगों को उसका दोषी माना जाता है, तो कहीं न कहीं इसके खिलाफ कोई कदम न उठाकर उसको बढ़ावा दे रहा है।

क्या वाकई जरूरी थी ये लड़ाई?


कोई भी मांगें बिना किसी लड़ाई के भी पूरी हो सकती हैं अगर तत्कालीन सरकारों द्वारा सही समय पर उचित निर्णय ले लिया जाय। इसी प्रकार अभी हाल ही में गुर्जर आन्दोलन के नाम से पनपी एक लड़ाई की बात करें, तो अशोक गहलोत की सरकार की भांति लिये गये निर्णय यदि वसुधंरा राजे के समय ही ले लिये गये होते, तो ये लड़ाई दोबारा न पनपती। मगर राजे सरकार ने गुर्जर समुदाय के अनुसूचित जनजाति में शामिल  किये जाने के वादे किये, जिससे गुर्जरों को जाट के बराबर सुविधायें उपलब्ध हो सकें परंतु वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री बनते ही राजे सरकार द्वारा यह मुद्दा पर विवादास्पद होने की वजह से इस पर कोई कदम नहीं उठाया। वहीं गुर्जरों द्वारा आंदोलन करने पर उन पर गोलियां चलवाने को आदेश  दे दिया, जिसमें 58 लोग मारे गये। जिसके बाद उन्होंने गुर्जरों के लिये सरकारी नौकरियों में 5 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी। फिर अशोक  गहलोत की सरकार बनते ही उन्होंने संवैधानिक दायरे के अन्तर्गत एक फीसदी आरक्षण को लागू कर दिया। बाकी 4 फीसदी आरक्षण पर न्यायालय के फैसले के आने के बाद विचार करने का वादा किया।
  तो ऐसे मुश्किल  समय में सरकारों द्वारा जनता को अपनी बातों से संतुष्ट करना महत्वपूर्ण होता है। जरूरी नहीं उनकी गलत बात को भी मानें बल्कि उन्हें अपनी बात कहने का मौका दें और वहंी सही वक्त आने पर उन पर अमल किया जाय। अन्यथा खामियाजा सरकार से कहीं ज्यादा जनता को भुगतना पड़ता है क्योंकि सरकार को तो केवल विरोध झेलना पड़ता है लेकिन उनके बीच की जनता को उनके बीच रहकर उनके गुस्से का सामना भी करना पड़ता है।

क्या तासीर का हत्यारा है केवल कादरी ही!

पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उन्हीं के अंगरक्षक मलिक मुमताज़ हुसैन कादरी ने की। ये हत्या केवल गवर्नर की नहीं, बल्कि उन सभी नागरिकों की है, जो शांतिपूर्ण   और स्थिर समाज के लिये वार्ता पर विश्वास  रखते हैं उनका जुर्म केवल इतना था, कि उन्होंने पाकिस्तान के ईशनिंदा  विरोधी कानून को समाप्त करने की मांग की थी, जिसके अन्तर्गत इस्लाम का विरोध करने वाले किसी भी व्यक्ति को मौत की सजा़ सुना दी जाती थी। तासीर पाक राष्टपति जरदारी और उनकी बीवी बेनजीर भुट्टो, जो स्वयं 2007 में मार दी गई थी, उनके साथी थे। लेकिन लगता है कि ऐसी सोच रखने वालों को पाक में मौत का उपहार ही मिलता है। तासीर की हत्या से ये साफ हो जाता है, क्योंकि कादरी द्वारा लगातार 26 गोली से भूनने पर भी 8 सुरक्षाकर्मियों ने कोई कदम नहीं उठाया, जबकि इस बीच उसने अपनी राइफल की मैगजीन तक बदली। इसके अलावा ऐसे सुरक्षाकर्मियों को गवर्नर की सुरक्षा में लगाया था, जिसे वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा वीआईपी की सुरक्षा के लिये अयोग्य करार दिया जा चुका था। वहीं कादरी को कोर्ट में पेश  करने से पहले उसे मालायें आदि पहनाकर उसको सम्मान दिये जाने जैसी परिस्थितियां गवाह है कि पाक को सलमान के खोने का गम नहीं बल्कि ख़ुशी  है। ऐसी स्थिति में किसका विरोध किया जाय जरुर  छोड़ जाती है कि तासीर की हत्या के लिये क्या केवल सलमान जिम्मेदार है या इसके लिये और किसे सजा दी जानी चाहिये?

आखिर कौन उठायेगा तानाशाही के विरूद्ध मुहिम?

ये घटना किसी एक किसान, किसी एक गांव या फिर किसी एक इलाके की नहीं है बल्कि ये किसी भी ऐसी जगह घटित हो सकती है जहां सरकारी पदासीन या उच्च वर्ग के लोगों का स्तर निम्न वर्ग के लोगों की तुलना में इतना बड़ा हो जाये कि वे निम्नवर्ग के लोगों की जान की कीमत पैसों से भी छोटी समझने लगें?
ब्रिजीश   नगर निवासी एक किसान शिवप्रसाद ने बैंक से 4,80,000 का लोन लिया था, जिसको उसे ब्याज सहित लगभग 10 लाख चुकाना था। इस वर्ष जहां एक तरफ सर्दी के कारण उसकी सारी फसल जिसमें 4 एकड़ में चने, 1 एकड़ में सब्जी और 3 एकड़ में बोया गेहूं नष्ट हो गया वहीं दूसरी तरफ उसी गांव की महाराष्ट ऑफ बैंक के मैनेजर राजकुमार अहिरवार का लोन के चलते बीते 3 महीनों से किसी भी समय घर पर आकर डराना-धमकाना शिवप्रसाद  के मानसिक तनाव का कारण बना और उसने मौत का विकल्प चुना। घटना के दिन दोपहर 2 बजे भी अहिरवार शिवप्रसाद  से मिला और शाम  4 बजे षिवप्रसाद की लाष घर से थोड़ी दूर कुयें के पास मिली। इस सारे घटनाक्रम के बाद ये कह पाना मुश्किल  था, कि आखिर घटना का जिम्मेदार है कौन?
वो बैंक मैनेजर, जो घटना के बाद से ही छुट्टी पर चला गया और जिसका जवाब देने के लिये कोई तैयार नहीं या फिर सरकार की तरफ से पर्याप्त सुविधाएँ  उपलब्ध न कराये जाने से फसल का नष्ट होना, क्योंकि उस गांव में बिजली रात 12 बजे  के बाद आती है और सुबह 6-7 बजे तक चली जाती है, जिस समय में खेत को न तो सींचा जा सकता है न ही और कुछ काम किया जा सकता है। वहीं अगर सिंचाई के लिये पानी की बात करें; तो गांव के लोगों को बारिश  का इंतजार करना पड़ता है, जिससे वे लोग कुंयें में पानी बचाकर रखते हैं। इतनी सारी कठिनाइयों और असुविधओं के बीच जीते और देष में अन्न उपलब्ध कराने वाले इन किसानों की तरफ सरकार का ध्यान क्यों नहीं गया और दिन-ब-दिन बढ़ती किसान आत्महत्याओं के चलते अगर ध्यान गया भी, तो किसानों को मिला क्या-‘वादे और दिलासा’ !
 जी  हां! घटना के बाद दिलासा देने पहुंचे राजस्व मंत्री करनासिंह वर्मा ने बैंक लोन माफ करने के साथ-साथ बच्चों की मुफ्त  पढ़ाई और साथ में मुआवजा दिलवाने के वादे किये। जिसके एक हफता बीत जाने के बाद भी इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया है। सबसे बड़ी विडम्बना है, कि बजाय उस परिवार या उसके जैसे परिवारों की सहायता करने के अगले दिन अखबार में आत्महत्या करने का कारण दिमागी रूप से असंतुलित होना बताया जाता है वो भी सरपंच रामसिंह वर्मा जो कि भाजपा पार्टी से संबंधित है उनके कहने पर कलक्टर द्वारा ये बयान दिया गया था। सरपंच, जो 10 से 15 दिन में भी शायद   ही शिवप्रसाद से मिलते होंगे, वहीं उससे रोजाना मिलने वालों के बयान को प्रशासन  या अखबार में कोई जगह नहीं मिलीं। एक परिवार या ऐसे कई परिवार जिन्हें आर्थिक सहायता की जगह मानसिक सहायता तो दूर, सही तरह से न्याय भी नहीं मिला; उल्टा मरने वालों को ही उसकी मौत का जिम्मेदार ठहरा दिया गया। जिससे षायद कोई संतुष्ट नहीं है सिवाय उन लोगों के जो असल में इसके जिम्मेदार है और सत्ता और शक्ति  भी उन्हीं के हाथ में है। लेकिन प्रष्न ये उठता है कि इनके खिलाफ आवाज कौन उठायेगा? हम या आप में से कोई! तो फिर क्यों पहल का इंतजार किया जाता है और फिर नई घटनाओं के घटित होने के बाद इन्हें भी भुला दिया जाता है। अगर ऐसी घटनाओं को अंजाम तक पहुंचाना हो या फिर दोहराव से बचाना हो, तो पहल हम में से ही किसी को करनी होगी?