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शनिवार, 13 मार्च 2010

सखी सइयां तो रोज ही कमात है, महंगाई डायन खाए जात है

सखी सइयां तो रोज ही कमात है, महंगाई डायन खाए जात है - ये गीत अब एक लोक गीत बन क़र नहीं रह गया है। अभी तक ये सिर्फ गीत के तौर पर लोगो के बीच चर्चा में था लेकिन अब इसका इस्तेमाल रजनीति आग में घी के रूप में किया जाने लगा है। महंगाई मुद्दा नेताओं के लिए राजनीति में सियासी दांव पेंच खेलने का मोहरा सा बन गया है। चाहे संसद की बात की जाये या भाजपा की पत्रिका की विपक्षी दल के वरिष्ठ नेता केन्द्रीय सरकार पर किसी भी प्रकार की छीटा कासी और टीका टिप्पड़ी करने से नहीं चूक रहे है। कांग्रेस पार्टी की पुनः निर्वाचित अध्यक्ष सोनिया गाँधी को महंगाई डायन की संज्ञा से महिमा मंडित तक कर डाला गया। वैसे गत माह पूर्व से ही महंगाई से त्रस्त जनता में इसका रोष देखने को मिल रहा है। कहीं विरोध प्रदर्शन करते दिखते है तो कहीं आगजनी करते मिलते है। बहरहाल लोगों का उग्र होना भी स्वाभाविक है क्यूंकि पेट्रोल, घरेलू गैस, बिजली, सब्जी, अनाज आदि के दाम अचानक जो आसमान छूने लगे है। मेरे ख्याल से सरकार इस रोष से बच सकती थी अगर वह इन सभी के दाम एक एक करके और थोडा थोडा करके बढाती।

महंगाई का रोना तो सरकार और जनता सभी ने रोया लेकिन शायद की किसी ने बढती महंगाई के पीछे छिपे कारणों को खंगालने की कोशिश की हो। अगर की होती तो पता चल जाता की महंगाई के सबसे बड़े दोषी हम है, पता चल जाता की अब वस्तुओं के दाम गिरने तो मुश्किल है, हाँ आगामी वर्षों में वस्तुओं के दाम बढ़ने के आसार जूर नजर आरहे है।
आज़ादी से पहले देश में लोगों की आबादी के बराबर मवेशी थे। इसलिए वस्तुओं की खपत कम और प्रर्याप्त जैविक खाद के चलते कृषि सफल थी लेकिन अब तो हम लोग ग्लोब्लाइज्द हो गए है। आज लोग खुद को दिखावे की चादर से ढकना ज्यादा पसंद करते है। पश्चीमी देशों के सामने खुद को आधुनिक दिखाने के चक्कर में लोगों ने जैविक कृषि का गला घोंट दिया और मिटटी को जहर यानी रासायनिक खाद्य खिलाना शुरू कर दिया। रवि और खरीफ फसलों का चक्र बिगड़ गया। नतीजतन कुछ वर्षों में फसलों की पैदावार कम हो गयी। इधर मशरूम की तरह जगह जगह पर लोगो की बढती आबादी के नयी समस्या बन कर सामने आई है। आबादी मतलब मांग और मांग तो तब पूरी होगी जब बाजार में पर्याप्त उत्पाद हो। याही दशा है जब सरकार मजबूर होकर बाजार में वस्तुओं की खरीद को रोकने व लोगों के बीच मारामारी को कम करने के लिए दाम बढ़ा देती है।
याद हो २००८ में भारत में ६२१ में से २७२ जिले सूखा ग्रसित घोषित किये गए थे, उस वर्ष वर्षा बहुत कम हुई थी जिससे २३ प्रतिशत फसल प्रभावित हो गयी थी. ये एक बड़ी समस्या थी. जिसकी जिम्मेदारी सरकार के कन्धों पर थी. कृत्रिम वर्ष करा पाने में असमर्थ सरकार के पास बस एक रास्ता था, दाम बढ़ा दिए।
वो दिन आज भी मुझे याद है जब केंद्र सरकार के कर्मचारियों के मुख पर ख़ुशी दिखाई दे रही थी क्यूंकि छठा वेतन आयोग जो लगने वाला था। सभी कॉग्रेस की जय जयकार कर रहे थे लेकिन इसमें मुझे कोई ख़ुशी की बात नजर नहीं आ रही थी क्यूंकि अगर सरकार जनता के लिए अपना धनकोष खली कर रही है तो उसे भरने के लिए भी जनता से रुपया वसूले गी। मतलब एक बार फिर महंगाई। महंगाई से सीधे अर्थ निकलता है की जनता की जेबें ढीली होना। अब ये सरकार का हुनर है की वह किस तरह से लोगों की जेबों से पैसा निकलवाती है।
सरकार होम लोन, कार लोन, शिक्षा लोन कम करके, ब्याज दर, रिवर्स रेट व रिवर्स रेपो रेट या वस्तुओं के दाम बढाकर किसी भी तरीके से संतुलन स्थापित करने की कोशिश करती है।
"अर्थव्यवस्था एक ऐसा भ्रम व जाल है जिसमें फसने के बाद हेर शख्स यही कहता है की महंगाई डायन खाए जात है."