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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

विस्फोट.कॉम पर प्रकाशित- बुरी बात नहीं है संगीत में प्रयोग- शुभा मुद्गल

यह लेख भास्कर .कॉम पर प्रकाशित- सात्विक वीणा को मध्य प्रदेश ने दिया पहला मौका

यह लेख भास्कर .कॉम पर प्रकाशित- भोपाल के लोगों को संगीत की सही पहचान

chauraha.in पर- शास्त्रीय संगीत किसी का मोहताज नहीं है : शुभा मुदगल

रविवार, 25 सितंबर 2011

कम नहीं है हिन्दी में संभावनाएं


 ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ ये शब्द  अभी नहीं बल्कि ऐसा एक सदी का सपना हुआ करता था। नवजागरण और साम्राज्यविरोधी इस लहर में भाषाई राष्टवाद पिछली डेढ़ दो शताब्दियों की एक विश्व परिघटना है। छोटे बड़े तमाम राष्टों ने अपनी भाषाई अस्मिताओं की लड़ाई को प्राथमिकता दी और उसे ही साम्राज्य विरोध के जबरदस्त राजनीतिक आन्दोलन में तब्दील किया। लेकिन बहुभाषा भाषी बहुसांस्कृतिक देशों में राष्ट्र भाषा या किसी एक भाषा को सर्वज्ञ सम्मान मिलना मुश्किल काम है। भारत भी बहुभाषा भाषी और बहुसांस्कृतिक दृष्टि दोनों गुणों से संपन्न राष्ट्र  है। ऐसे में किसी एक भाषा का यहां पैर जमाना मुश्किल  पड़ जाता है। अगर हम बात करते हैं हिन्दी भाषा की, जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा पहले ही मिल चुका है। उसे आज वैश्विक स्तर पर सम्मान दिलाने की बात चल रही है और इसके लिये भरसक एवं वाजिब प्रयास भी किये जा रहे हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में ये माना गया है कि अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैठ जमानी है, तो पहले राष्ट्रीय  स्तर पर पकड़ बनाना जरुरी होता है।
पिछले कई सालों से हिन्दी की इस अस्तित्व की लड़ाई कई पीढ़ियों ने लड़ी और जो अब भी जारी है। स्वतंत्रता के समय गांधीजी ने हिन्दी भाषा के अस्तित्व पर चिंता जताते हुये कहा था.
‘‘दुनिया से कह दो-गांधी अंग्रेजी नहीं जानता.........सारे संसार में भारत ही अभागा देश है जहां सारा कारोबार एक विदेशी  भाषा में होता है......तो आइये हम प्रण करें कि हम अपना अधिकतम कार्य हिन्दी भाषा में करेंगे........स्वदेश , स्वराज्य और स्वभाषा का सम्मान रखेंगे । ’’ और इस गतिषील परिदृष्य में भी भाषा के अस्तित्व की समस्या कुछ खास कम न होने पर रामविलास शर्मा ने कहा है,
‘‘सांस्कृतिक विकास के लिये सबसे पहले सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्यो में  भारतीय भाषाओं का व्यवहार होना चाहिए। भारत में अनेक शिक्षा आयोग गठित किये गये, उन सबने कहा कि  शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषायें होनी चाहिए, परंतु विश्वविद्यालयों में उच्च  शिक्षा का माध्यम अभी तक अंग्रेजी बनी हुई है। विद्वान  अपने अखिल भारतीय सम्मेलन करते हैं, तो अंग्रेजी में भाषण करते हैं। उनके शोधपत्र  अंग्रेजी पत्रिकाओं में  प्रकाशित होते हैं। यदि उनके निबंध विदेशी पत्रिकाओ  में प्रकाशित  होते हैं तो वे और भी सम्मानित समझे जाते हैं। लोग लाखों रुपये खर्च करके विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित करते है, वहां हिन्दी को विष्वभाषा बनाने का बीड़ा उठाते हैं। यदि वे केवल दिल्ली विश्व विद्यालय की ‘वास्तविक’ राष्टभाषा और विष्वभाषा बन जायेगी।   ’’
ये सच्चाई है की संविधान सभा की निर्णायक बैठक में सिर्फ एक मत से हिंदी को सर्व मत सम्मान हासिल हुआ। इसलिए खुद गुजराती भाशी होते हुए भी उन्होंने हिंदी सीखी और पूरे देश को सिखाने का बीड़ा उठाया। दक्षिण में हिंदी प्रचार सभा ने साम्राज्य विरोधी राष्ट्रीय   एकता व एकजुटता की एक लहर सी पैदा कर दी। 
डाक्टर रामविलास शर्मा ने इस सम्बन्ध में कहा है कि हिंदी भाषा को लेकर १९४५-१९४६ के दौरान गाँधी जी के विचारो में परिवर्तन आया। जब उन्होनें देखा की अंग्रेजो को खदेड़ने के लिए मुस्लिम लीग से समझौता करना पड़ेगा तब उन्होंने राजनीति में इस्तेमाल की जाने वाली समझौते की नीति को भाषा के क्षेत्र में लागू किया।
  अगर वर्तमान परिदृश्य की बात करे तो शासक वर्ग चरित्र में आज भी कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ है। किन्तु सामाजिक स्तर पर पिछड़े ,दलितों ,स्त्रियों आदि तबको में हिन्दी को लेकर उभार आया है। और आजादी के बाद के इन ६४ सालो में और वो भी मंडल रिपोर्ट लागू करने के बाद शासन स्तर पर भी अंग्रेजी के प्रति कुछ मोह कम हुआ है और हिंदी की स्वीकारिता बढ़ी है। 
और सरकार भी खुद जागरूक होने के साथ साथ समाज को भी इस क्षेत्र में जागरूक करने का बीड़ा उठा लिया है। इसके लिए उसने हिंदी को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त नियम भी बनाये है। जैसे सरकारी काम काज के लिए मंत्रा राजभाषा सॉफ्टवेर, हिंदी सीखने वालों के लिए राजभाषा की वेबसाइट पर उपलब्धता, इ-महाशब्द कोष आदि. वहीँ प्राइवेट कंपनी भी अपनी तरीके से हिंदी पर अपनी पकड़ बना रहा है जिसके लिए गैजेट्स, मोबाइल में हिंदी माध्यम की सुविधा, गूगल ट्रांसलेटर और इ पेपर्स की सुविधा की सुविधा प्रदान की है और बाकी प्रयास जारी है
वहीं हिंदी भाषी भाषाई के प्रोत्साहन के लिए सरकार ने राज्य राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम पुरस्कारों की भी व्यवस्था भी की है। प्रदेश स्तर पर साहित्य अकादमी ने  मध्य प्रदेश लेखकों के लिए दो पुरस्कारों की योजना बनाई है।
1- मैथिलीशरण  गुप्त अवार्ड  एवं २ लाख रूपये।
2- शरद जोशी सम्मान एवं १ लाख रूपये।
वही राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने भी हिंदी लेखन के लिए पुरस्कारों की व्यवस्था  की है। 
पहला अहिन्दी भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार व १ लाख रुपया। 
दूसरा शोध के लिए अनुदान -  इसमें हिंदी में शोध कार्य करने के लिए ३ यूनिवर्सिटीज् में जाने का भत्ता व डीए दिया जाता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय स्कोलरशिप की व्यवस्था भी की है, जिसके निम्न दो उदाहरण हैं- 
१-फुल ब्राइट फारेन लैंग्वेज टीचिंग असिस्टेंन्ट्स प्रोग्राम- युनाइटेड स्टेट इण्डिया एजुकेशनल फाउण्डेशन यह प्रोग्राम चलता  है। इसमें यू.एस. की कुछ यूनिवर्सिटीज् शामिल हैं। यहाँ हिंदी पढ़ाने का इच्छुक कोई भी शिक्षक जा सकता है उसे वेतन के साथ साथ रहने व आने जाने का किराया भी उपलब्ध कराया जायेगा।
२-टेक्सास यूनिवर्सिटी -इसमें रिसर्च करने के इच्छुक लोग यदि योग्य है तो उन्हें १००प्रतिशत स्कालरशिप मिलेगी। 
इन सबके अलावा राजीव गाँधी हिंदी लेखन पुरस्कार की भी व्यवस्था की गई है जो कार्यरत और सेवा निवृत्त शासकीय अधिकारी एवं कर्मचारी को हिंदी लेखन के लिए दिया जाता है जिसमे कम से कम १०० पेज की किताब हिंदी साहित्य को छोड़कर होनी चाहिए। इसमें ४ पुरस्कारों की व्यवस्था है।  प्रथम को ४०  हजार, दितीय को ३० हजार और तृतीय को २० हजार एवं प्रोत्साहन पुरस्कार के तौर पर १० हजार रूपये देने की व्यवस्था है।
..अगर सरकार और समाज के इस प्रकार के प्रयास लगातार किये जाते रहे तो  हिंदी का खोया हुआ स्थान और सम्मान वापस मिलने के आसार लगाये जा सकते हैं।

नारी सशक्तिकरण: संविधान में नहीं सोच में बदलाव जरुरी

सोमवार, 19 सितंबर 2011

संविधान में नहीं सोच में बदलाव जरुरी


"यत्र नार्यातु पूज्यन्ते तत्र देवो  रमन्ते"
"जहाँ नारी की पूजा होती है वहा देवता निवास करते हैं"
महिलाओं  को शुरू से ही एक सम्मानीय और पूज्यनीय स्थान मिला हैलेकिन समय बढ़ता गया और धीरे धीरे समाज पुरुष प्रधान  होता चला गया . इसके कोई तर्क पूर्ण कारण  सामने नहीं आये की
पुरुष इतना शाक्तिशाली  और देव तुल्य  कैसे हो  गया  . जिसे उसने अकेले ही समाज का नेतृत्व करने का बेडा उठा लिया . इसी सोच  और परित्थितियों  में बदलाव लाने  के लिए महिला सशक्तिकरण  की अवधारणा संज्ञान में आई.
महिला सशक्तिकरण की निश्चित परिभाषा  नहीं है बल्कि ये कहा जा सकता है की महिलाओं की भागीदारी को महत्वपूर्ण मानते हुए समाज में कानूनों के माध्यम से उनको स्थान निश्चित करा देना .  
समूचे सभ्यता में ब्यापक बदलाव के इक महत्वपूर्ण घटक  के रूप में महिला सशक्तिकरण के आन्दोलन  को २० वीं  सदी के आखरी दशक का इक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक विकास शायद इसी मायने में कहा गया . क्योकि आबादी का आधा  हिस्सा किसी भी रूप में समाज में अपना  योगदान देने में अछम  साबित हो रहा है . इसी क्रम में महिला सशक्तिकरण की शुरुआत सयुक्त रास्त्र संघ द्वारा ८ मार्च १९७५ को अंतररास्ट्रीय  महिला दिवस से मानी जाती है इसके बाद महिला सशक्तिकरण की पहल १९८५ में महिला अंतररास्ट्रीय सम्मलेन नैरोबी में की गयी.
इन दोनों पहलों से महिला और बाकी समाज को उसके अस्तित्व से रूबरू कराने की कोशिस की गयी . फिर भारत सरकार ने समाज में लिंग आधारित  भिन्ताओं   को दूर करने के लिए महिला सशक्तिकरण  नीति  १९५३ अपनाई इस प्रकार की पहल से महिलाओं में आत्मविश्वास की संचार कल्पना की गयी.  जो काफी हद तक सफल भी हुई.
अगर सरकार या सवैधानिक न्याय की बात करे तो इसकी उपलब्भता   उन्हें पहले ही कराइ जा चुकी है. अन्नुछेद १५(2) के अनुसार महिलाओं  और बच्चों को  हमेशा वरीयता दी जा सकती है एवं भारत के संविधान में ७३ वें और ७४ वें संशोधन ले द्वारा स्थानीय निकायों को स्वायतशासी मान्यता दी गई . इसमें यह भी बताया गया की इन निकायों का किस किस प्रकार से गठन किया जायेगा . संविधान के अनुच्छेद २४३ डी  और २४३ टी के अंतरगत  इन निकायों के सदश्यों  व उनके प्रमुखों की इक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए सुरछित  की गई है . वहीँ परिवार न्यायालय अधिनियम के अंदर परिवार न्यायालय  का गठन किया गया है . इस अधिनियम  की धारा ४४(b) के अंतर्गत न्यायालय  में न्यायगढ़    की नियुक्ति करते समय महिलाओं को वरीयता दी गई है . इसके आलावा अनुच्छेद (513) कहता है की स्त्रियो की दयनीय स्थितिकुरीतियों के कारण  होने वाले उत्पीडन बाल विवाह तथा बहू  विवाह आदि के कारण शोसण की स्थिति में राज्यों में उनके लिए विशेष  प्रबंध व विशेषाधिकार  दिया जाना चाहिए .
इस संवैधानिक सहयोग  के बावजूद सरकार ने एक विधान सभा और लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित  करने का फैसला रास्ट्रीय  राजनीतिक दल पर छोड़ा था जिसमे वे लोग सहयोग  तो दूर की बात हैं दिलचस्पी भी नहीं ले रहे है जबकि १९९३ में सरकार पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण प्रदान कर चुकी है जो बिहार . मध्य प्रदेश व हिमाचल प्रदेश में बढकर ५० प्रतिशत  हो भी चूका है .
इससे ये अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है की कहीं न कहीं समाज या हमारे आस पास के लोग ही इस बात में बाधक  बने हुए है क्योकिं खुद स्त्री में तो वो  बल है की वह राष्ट्रपति बनकर देश चला सकती है . उसे घर के दरवाजे से निकलने की आनुमति मिल जाये शासन की सत्ता में  उसका द्रिड निश्चय और सरकारी सहयोग  तो पहले ही मिल चूका है क्योकि आज भी संवैधानिक संशोधन के अनुपालन के लिए भी घर  के वक्य्तियों की अनुमति सर्वोपरि हैं इसलिए यहाँ जरूरत है सच में परिवर्तन  की न की संविधान संसोधन की क्योकि कितने भी संशोधन  कर लिए जाये सभी के अनुपालन के लिए इन्ही लोगों के सहयोग  की आवश्यकता होती है . 

रंगमंच के लिए कुछ नया करने की तमन्ना हैं: अहमद खां

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

नियत नेक तो रास्ते अनेक




एक बार फिर जनता के आक्रोश और अन्ना के नेतृत्व ने आन्दोलन का रूप लिया. भले ही सरकार   ने अन्ना का अनशन तुडवा कर उनकी मात्र तीन शर्ते ही मानी. इससे एक बात तो सामने आ ही जाती है की आज भी जनता एक साथ खड़ी हो सकती है यदि सरकार अपना कर्तव्य और दैत्व    भूल जाती है .
अन्ना ने भ्रस्ताचार  के खिलाफ जो अभियान छेड़ निश्चय ही वो सराहनीय है. संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, और अरविन्द केजरीवाल, द्वारा इस बिल कनीक नियत से बनाया गया था. जिसे अंजाम देने के लिए उन्होंने चुना भी एक धोती कुरता पहने सर पर गांधीवादी टोपी लगाये ऐसा व्यक्ति जिसका भूतकाल साफ़ सुथरा, भ्रष्टाचार मुक्त, और सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप वाले "अन्ना हजारे" को
जिसके नेतृत्व के चलते एक बड़ी जनशक्ति और युवा शक्ति आगे पीछे खड़ी हो गई. लेकिन यहाँ पर प्रश्न उठता है की ये जन शक्ति अन्ना के उस जन लोकपाल के समर्थन में खड़ी थी या फिर भ्रष्टाचार के विरूद में. दोनों में बहुत अंतर है. क्योकि वहा कई लोग ऐसे थे जिन्हें जन लोकपाल के बारे में पता तक नहीं था. लेकिन अन्ना का आन्दोलन जन लोकपाल  बिल को पास कराना था जिसे उन्होंने भ्रस्ताचार मिटाने का एक जरिया माना   .
अब अगर जन लोकपाल बिल पर चर्चा करे तो मेरी नजर में इसके सकारात्मक और नकारत्मक दोनों ही पहलु है. मैय इसके कुछ ही मुद्दों पर सहमत हू. अब यदि इसके सकारात्मक पछ को देखे तब जाच और कार्यवाही की तय समय सीमा, राज्य में लोकायुक्त, समय पर काम का प्रावधान, आरोपी को उनके जुर्म के अनुरूप सजा, इसके प्रशंसनीय नियम है. लेकिन इसके नकारात्मक पछ पर जाये तो न्यायपालिका और प्रधानमंत्री  को दायरे में लाना एन जी ओ को दायरे में न लाना लोकपाल  की योग्यता  का तय न होना, लोकपाल को आर टी आई के अंतर्गत आने पर अस्पस्स्त्ता इत्यादि पछ  सोचने पर मजबूर करते है. प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को दायरे में लाकर एक व्यक्ति के हाथ में पूरी शक्ति दे देना कहा तक और कैसे सही है. क्योकि संविधान का निर्माण और शक्तियों व अधिकारों  का वितरण यही सोच कर किया गया था की एक हाथ में शक्ति होने से उस शक्ति के दुरपयोग होने  की अधिक सम्भावनाये रहती है. न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी यही सोचकर रखी  गई थी की उसे निर्णय  लेन में कोई बाध्यता न हो .

यदि लोकपाल का रुख  सकारात्मक  होता तब तो कोई परेशानी नहीं  है लेकिन यदि उसका प्रभाव  नकारात्मक हुआ तब उससे उभरने के लिए कोई  विकल्प नहीं होगा या चन्द  विकल्प  ही बचेंगे.
वही प्राइवेट संसथान या एन जी ओ को दायरे में न लेने से यही प्रतीत होता है की हम सिर्फ सरकारी भ्रस्ताचार की बात कर रहे है इस बात पर भी कयास लगाये जा रहे है की अरविन्द केजरीवाल, किरण वेदी, मनीष सिसोधिया, अगिनिवेश इत्यादि सभी की एन जी ओ है. जिन्हें समाज में गरीबी मिटाने  के नाम पर करोडो चंदा विदेश से मिलता है इसके अलावा इण्डिया अगेंष्ट करप्सन नाम की एन जी ओ ही इस आन्दोलन को वित्तीय सहायता दे थी जिसके कारन बिल में एन जी ओ को शामिल नहीं किया गया.
मिनिस्ट्री आफ होम अफेयर्स के की ऍफ़ ची क विंग ने दस्तावीज प्रस्तुत किये है की एक एन जी ओ को प्रति वर्ष ५०,०००,०० करोड़ रूपये देशी और विदेशी सहायता के रूप में मिलते है. जिसक कोई लेखा जोखा नहीं है. इस समय ऐसी ३३ लाख एन जी ओ है जिन्हें पिछले दशक में ५-६ लाख करोड़ धन मिल चुका  है .

अगर विचार करे की क्या केवल यही विकल्प है भ्रस्ताचार मिटाने का या कोई और उपाय भी संभव है. जैसे न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखकर उसमे लोकपाल जैसा ही व्यक्ति हो जिसे हटाने और लाने के लिए कानून तय हो और न्यायपालिका तक पहचने का एक सहज रास्ता हो. साथ ही जन लोकपाल बिल की कुछ मांगे भी मान्य हो जैसे छेत्रिय स्तर पर भ्रस्ताचार मिटाने के लिए राज्यों में लोकायुक्त, अपराधियों की जायज सजा व जुरमाना, काम व कार्यवाही की तय समयसीमा हो. इस प्रकार का रास्ता अपनाकर शक्ति व सत्ता का विकेंद्रीकरण भी बना रहेगा और संसद और संविधान का अपमान भी नहीं होगा साथ ही मांगे मने जाने की उम्मीद रहेगी .
अब इस दौरान  मीडिया के भूमिका  की बात करे तो सब  जानते है की आन्दोलन की कामयाबी का एक बड़ा श्रीय मीडिया को जाता है. लेकिन जिम्मेदारी के अनुरूप देखे तो क्या मीडिया का इस तरह एक पछिय रूप सही था. इस दौरान मीडिया ने कई बड़ी और जरुरी खबरों को नजरअंदाज कर दिया जैसे पूर्वी भारत में बाढ़ जैसी खबर समाज के संज्ञान में नहीं आ पाई  .        
मीडिया के इस प्रकार के रुख के कारणों पर जाये तो कही पिछले कुछ समय से मीडिया की नकारात्मक छवि को सुधारने और जनता की नजरो में सही ठहरने के लिए मीडिया ने इस मौके का सहारा लिया है वही ये भी आरोप लगाया जा रहा है की इस आन्दोलन को कार्पोरेट ने इसे सपोर्ट और एन जी ओ ने इसे मंच दिया और तीनो ही लोकपाल के दायरे में नहीं है 
इस दौरान सरकार और पार्टियों ने तो इस मौके को वोटिंग बैंक के रूप में भुनाया है वही नेताओ ने अपनी छवि सुधरने का साधन बनाया. जैसे की ये बयान आ रहे थे की पिछड़ी जातियों का इस आन्दोलन को समर्थन नहीं प्राप्त है तो बसपा ने बिल पर चर्चा के दौरान इस पर चुप्पी साधे रखी . तो ऐसी स्थिति  में हमें पूरा माहौल और हर पछ  को देखकर अपना निर्णय और समर्थन देना आवयशक हो जाता है क्योकि हर निर्णय के दोनों पहलुओ का सबसे ज्यादा प्रभाव हम पर ही पड़ता  है.   
         
  

मायाराम सुरजन भवन में दो दिवसीय अलंकार समारोह का आयोजन