
ये बात कहीं से गलत नहीं है, कि इस वर्ष ‘म.प्र. में किसानों की बढ़ती आत्महत्या और महंगाई’ महत्त्वपूर्ण मुद्दे रहे। बस मुख्यमंत्री जी ने यहीं पर गलती कर दी कि उन्होंने अपने पूर्वजों को बिना किसी संकट या ठोस वजह के याद कर लिया। तो जनता ने भी बिना इतिहास या प्रस्ताव का कारण जाने बिना केवल एक पक्ष को देखते हुये विरोध करना शुरू कर दिया। लोग इस मुद्दे के ऐसे पहलुओं को नकारात्मक मान रहे हैं जैसे ‘म.प्र. में किसान आत्महत्या’ जो समाज में पहले से ही था, ‘मूर्ति निर्माण’ या ‘भोपाल का नाम परिवर्तन’ न तो इन समस्याओं का कारण है और न ही इस प्रकार की पहल से समाज में व्याप्त इन समस्याओं के हल में कोई रूकावट आयेगी। इसके अलावा समाज में व्याप्त इन समस्याओं के लिये भी पर्याप्त कदम उठाये जा चुके हैं, चाहे वह ‘किसानों को दिया गया राहत कोष हो’ या ‘राज्य बजट में किसानों के लिये उपलब्ध कराई गई राशी ’।
वहीं अगर इस पहल के सकारात्मक पक्ष की बात करें, कि एक तो सांस्कृतिक दृष्टि से राज्य की देश और विदेश में एक अलग पहचान बनेगी ही और ये संस्कृति या सभ्यता की दिशा में पहल होगी। लोग भी पूर्वजों के महत्त्व को समझ पायेंगे! और तय कर पायेंगे कि उन्हें भविष्य में पहचान बनाने के लिये क्या कदम उठाने चाहिये? वहीं आर्थिक दृष्टि से देखें तो इसके प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ भोज की प्रतिमा ‘टूरिज्म’ की एक वजह बन सकती है। अब आते हैं भोज के योगदान पर तो सबसे पहले जान लें कि ‘‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली’’ जैसी कहावतें उन्हीं की वज़ह से समाज में आईं, जब उन्होंनें चालुक्य राजा तैलप को हराया था। इससे सिद्ध होता है, कि राजा भोज एक पराक्रमी राजा थे जिन्होंने वर्षों तक अपने इस राज्य की रक्षा की और वाह्य आक्रमणो से बचाया है। पराक्रमी होने के साथ साथ वे परम ज्ञानी भी थे, क्यूंकि उन्होंने रोबोट, लिफट,जहाज और विमान निर्माण बनाने की विधि का जिक्र अपने ग्रन्थों में किया है और अपनी रचना ‘समरांगण सूत्रधार’ में नगर रचना, भवन रचना और मुर्ति रचना का उल्लेख किया है। ऐतिहासिक महत्व के रूप में उन्होंने 84 ग्रन्थों की रचना की है, जिसके प्रमाण उज्जैन के संग्रहालय में आज भी विद्यमान है और निर्माण के क्षेत्र में भोजपुर का महान शिव मंदिर, उज्जैन में माण्डन का किला और तत्कालीन राजधानी धार में 42 फीट उंचा लौह स्तंभ, जिसकी खासियत है कि इस पर कभी जंग नहीं लगती, का निर्माण इन्होंने ही करवाया। वहीं अगर विकास के क्षेत्र की बात करें, तो बेतवा नदी पर 250 वर्ग मील क्षेत्रफल का विषाल बांध राजा भोज की ही देन है। वहीं राष्टीय स्तर पर रामेश्रम , सोमनाथ, केदार, मुंडीर और चित्तौड़ का त्रिभुवन नारायण मंदिर के अलावा कश्मीर में कप्तेस्वेर मंदिर आदि का निर्माण कराके उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में अपना योगदान सिद्ध किया। और अन्तर्राष्टीय स्तर भी इनके महत्त्व से अछूता नहीं है, भोजशाला की सरस्वती प्रतिमा, इंग्लैण्ड के ब्रिटिश म्यूजियम में रखी हैं उसे लाने के प्रयास 1961 से हो रहे हैं। अंतर्राष्टीय स्तर पर पुरातत्वविद पद्म श्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने नेहरू जी से मुलाकात की थी। इसके अलावा उनके बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात है कि चूंकि वे वास्तुशास्त्र के ज्ञाता थे तो उन्होंने पूरे शहर का निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुरूप कराया था। वहीं आज लोग ये तक बात कर रहे हैं कि उनकी मूर्ति स्थापित करना वास्तुशास्त्र के हिसाब से ठीक नहीं है ये नगर के लिये फलदायी नहीं है । ये सब जानकर हमें विरोध की कदम न बढ़ाकर ये सुकर मनाना चाहिये कि राजा भोज अपने राज्य की शुरूआत मालवा से करके भोपाल और मध्य प्रदेश तक विस्तार करके यहां विकास कार्य कराया और इसे उन्नत करने के साथ इसे अपना नाम दिया- ‘भोजपाल’ अर्थात् जिस स्थान को पालने वाला भोज हो। इन सब चीजों को याद करने का एक तरीका अगर जगह का नाम बदलना हो, तो इसका विरोध किया जाना कितना सही है? क्या उनके इतने योगदान के बदले उन्हें एक नाम भी नहीं दिया जा सकता। कहा जाता है कि संस्कृति और सभ्यता समाज की पहचान होती है, तो इस तरह के विरोध का क्या मतलब निकाला जा सकता है, कि समाज की आवशकताओं पहचान पर हावी हो रही है या फिर आने वाली पीढ़ी में वो खुद को स्थान नहीं देना चाहते?
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