"यत्र नार्यातु पूज्यन्ते , तत्र देवो रमन्ते"
"जहाँ नारी की पूजा होती है वहा देवता निवास करते हैं"
महिलाओं को शुरू से ही एक सम्मानीय और पूज्यनीय स्थान मिला है, लेकिन समय बढ़ता गया और धीरे धीरे समाज पुरुष प्रधान होता चला गया . इसके कोई तर्क पूर्ण कारण सामने नहीं आये की
पुरुष इतना शाक्तिशाली और देव तुल्य कैसे हो गया . जिसे उसने अकेले ही समाज का नेतृत्व करने का बेडा उठा लिया . इसी सोच और परित्थितियों में बदलाव लाने के लिए महिला सशक्तिकरण की अवधारणा संज्ञान में आई.
महिला सशक्तिकरण की निश्चित परिभाषा नहीं है बल्कि ये कहा जा सकता है की महिलाओं की भागीदारी को महत्वपूर्ण मानते हुए समाज में कानूनों के माध्यम से उनको स्थान निश्चित करा देना .
समूचे सभ्यता में ब्यापक बदलाव के इक महत्वपूर्ण घटक के रूप में महिला सशक्तिकरण के आन्दोलन को २० वीं सदी के आखरी दशक का इक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक विकास शायद इसी मायने में कहा गया . क्योकि आबादी का आधा हिस्सा किसी भी रूप में समाज में अपना योगदान देने में अछम साबित हो रहा है . इसी क्रम में महिला सशक्तिकरण की शुरुआत सयुक्त रास्त्र संघ द्वारा ८ मार्च १९७५ को अंतररास्ट्रीय महिला दिवस से मानी जाती है इसके बाद महिला सशक्तिकरण की पहल १९८५ में महिला अंतररास्ट्रीय सम्मलेन नैरोबी में की गयी.

अगर सरकार या सवैधानिक न्याय की बात करे तो इसकी उपलब्भता उन्हें पहले ही कराइ जा चुकी है. अन्नुछेद १५(2) के अनुसार महिलाओं और बच्चों को हमेशा वरीयता दी जा सकती है एवं भारत के संविधान में ७३ वें और ७४ वें संशोधन ले द्वारा स्थानीय निकायों को स्वायतशासी मान्यता दी गई . इसमें यह भी बताया गया की इन निकायों का किस किस प्रकार से गठन किया जायेगा . संविधान के अनुच्छेद २४३ डी और २४३ टी के अंतरगत इन निकायों के सदश्यों व उनके प्रमुखों की इक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए सुरछित की गई है . वहीँ परिवार न्यायालय अधिनियम के अंदर परिवार न्यायालय का गठन किया गया है . इस अधिनियम की धारा ४४(b) के अंतर्गत न्यायालय में न्यायगढ़ की नियुक्ति करते समय महिलाओं को वरीयता दी गई है . इसके आलावा अनुच्छेद (513) कहता है की स्त्रियो की दयनीय स्थिति, कुरीतियों के कारण होने वाले उत्पीडन बाल विवाह तथा बहू विवाह आदि के कारण शोसण की स्थिति में राज्यों में उनके लिए विशेष प्रबंध व विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए .

इससे ये अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है की कहीं न कहीं समाज या हमारे आस पास के लोग ही इस बात में बाधक बने हुए है क्योकिं खुद स्त्री में तो वो बल है की वह राष्ट्रपति बनकर देश चला सकती है . उसे घर के दरवाजे से निकलने की आनुमति मिल जाये शासन की सत्ता में उसका द्रिड निश्चय और सरकारी सहयोग तो पहले ही मिल चूका है क्योकि आज भी संवैधानिक संशोधन के अनुपालन के लिए भी घर के वक्य्तियों की अनुमति सर्वोपरि हैं इसलिए यहाँ जरूरत है सच में परिवर्तन की न की संविधान संसोधन की क्योकि कितने भी संशोधन कर लिए जाये सभी के अनुपालन के लिए इन्ही लोगों के सहयोग की आवश्यकता होती है .
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