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रविवार, 2 दिसंबर 2012

बोल कि लब आजाद हैं तेरे


फैज ने मनुष्य और मनुष्यता के हक में, अन्याय और शोषण के खिलाफ अपने जीवन में एक बड़ी जंग लड़ी और वह भी जंग की गहराई तक उतरकर, इसीलिए वे नौजवानों के पसंदीदा शायर हैं। फैज अहमद फैज का जन्म 1911 में सियालकोट (अविभाजित पंजाब) में हुआ। आरंभ में उन्होंने उर्दू-फारसी-अरबी में शिक्षा ली, मगर फिर उन्होंने अँगरेजी तथा अरबी में एमए किया। अँगरेजी के प्राध्यापक रहे फैज ने फिल्मों में भी गीत लिखे और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा, यह कहने वाले उर्दू के एक- मात्र शायर फैज थे। इससे पहले शायरी मुहब्बत के गम में ही डूबी रहती थीं। उस शायरी को फैज ने रास्ता दिखाया, बताया कि इसके सिवाय भी गम हैं, हालाँकि फैज ने खुद इस गम की बात भी की है। 
जन्म-
फैज अहमद खां का जन्म 13 फरवरी 1911 को सियालकोट में हुआ। मां का नाम सुल्लताना फातिमा और पिता का नाम चैधरी सुलतान मुहम्मद खंा था। यह सियाल कोट के मशहूर बैरिस्टर रहे। शिक्षा की शुरुआत अरबी-फारसी से हुई। बाद में अंग्रेजी व अरबी में एम.ए. किया। अमृतसर व लाहौर में अध्यापन किया। 1942 में ब्रिटिश इंडियन आर्मी ज्वाइन की। 1947 में जब फौज से इस्तीफा देकर लाहौर गए, तब वे वहां कर्नल थे और उन्हें एम.बी.ई. का खिताब मिल चुका था।
1941 में एलिस जॉर्ज जो बाद में एलिस फैज कहलाईं और जिनका नाम फैज की वालिदा ने कुलसूम रख दिया था से शादी की। 
इंकलाबी अंदाज-
1951 में पाकिस्तान की हुकूमत ने उन्हें तख्ता पलट की साजिश के आरोप में गिरफ्तार किया। 1958 में सेफ्टी एक्ट के तहत उन्हें दोबारा गिरफ्तार किया गया। फैज अदबे लतीफ, पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज के अलावा अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के मुख पत्र लोटस के संपादक रहे। वे ऐसे पहले एशियाई शायर थे जिन्हें लेनिन पुरस्कार दिया गया। मरणोपरांत पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से भी सम्मानित किया गया।
लियाकत अली खाँ की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में वे १९५१- १९५५ तक कैद में रहे। इसके बाद १९६२ तक वे लाहोर में पाकिस्तानी कला परिषद् मे रहे। १९६३ में उन्होंने योरोप, अल्जीरिया तथा मध्यपूर्व का भ्रमण किया और तत्पश्चात १९६४ में पकिस्तान वापस लौटे। वो १९५८ में स्थापित एशिया-अफ्रीका लेखक संघ के स्थापक सदस्यों में से एक थे। भारत के साथ १९६५ के पाकिस्तान से युद्ध के समय वे वहाँ के सूचना मंत्रालय में कार्यरत थे। 20 नवंबर, 1984 की दोपहर में फैज अहमद ने इस दुनिया से विदा ली।
काव्य संग्रह-
पहला काव्य संग्रह नक्शे फरियाद 1941 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद दस्ते सब, जिंदानाम, दस्ते-तहे-संग, सर-ए-वादी-ए-सीन, शामे शहरे यार, मेरे दिल, मेरे मुसाफिर नाम से उनके कई अन्य संग्रह आए। मीजा, सलीबें मेरे दरीचे में, सफरनामा क्यूबा आदि उनकी ख्यात, बहुपठित गद्य रचनाएं हैं। कम लोग ही जानते होंगे कि फैज ने एक दौर में तमाशा मेरे आग, संाप की छतर,प्राइवेट सैक्रेटर जैसे स्तरीय नाटक रेडियो के लिए लिखे। यह कि जागो हुआ सवेरा और दूर है सुख का गंाव नाम वाली फिल्मों के लिए उन्होंने गीत और संवाद भी लिखे।
फैज की आखिरी फिल्म-
उर्दू के मशहूर शायर फैज अहमद फैज की बनाई आखिरी फिल्म जो इतिहास का अनमोल सरमाया हो सकती है, दशकों पहले पाकिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान कहीं खो गई और उसका आज तक कुछ पता नहीं चल पाया।
फैज की पुत्री सलीमा हाशमी ने बताया कि वह अब भी पाकिस्तान और लंदन में 80 के दशक के शुरू में बनाई गई फिल्म ‘दूर है सच का गांव’ फिल्म के नैगेटिव ढूंढ रही हैं। फिल्म का अंतिम सम्पादन चल रहा था तो पाकिस्तान के राजनीतिक हालात बिगड़ गए और फैज को निर्वासन में चले जाना पड़ा। उसके बाद उस फिल्म की रीलें गुम हो गईं। किसी ने उस फिल्म को नहीं देखा क्योंकि वह कभी रिलीज नहीं हुई। फैज की एक मूल कहानी पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन ए.जे. कारदार ने किया था और इसमें कुछ अनजान चेहरों ने अभिनय किया था।
पाकिस्तान के गड़बड़ी वाले बलूचिस्तान सूबे में फिल्माई गई इस फिल्म में लोगों के विश्वास और आस्थाओं के बीच संघर्ष को दर्शाया गया था। अपने पिता की फिल्म को ढूंढने के अपने प्रयासों का खुलासा करते हुए सलीमा ने कहा कि फिल्म की रीलें आखिरी बार लंदन में पाकिस्तानी दूतावास में देखी गई थीं। उन्होंने कहा, ‘‘अब तमाम पुराने लोग जा चुके हैं। दूतावास के अधिकारियों का कहना है कि फिल्म उनके पास नहीं है। यह उनकी आखिरी फिल्म थी और इसके गुम होने से मेरे पिता का दिल टूट गया और उन्हें इस कड़वे सच पर यकीन करने में लंबा वक्त लगा।’’
बोल कि लब आजाद हैं तेरे- 
यह उर्दू के मशहूर और मरहूम शायर फैज अहमद फैज का जन्मशती वर्ष है। बाग-बगीचों, गुलशन और चमन से भी मस्ती से शायरी की जगह धुआँ-सा उठता दिखे या आग की लपट-सी आती दिखाई दे तो यह मान लें कि यहाँ फैज अहमद फैज मौजूद हैं। फैज इन्कलाब का पर्याय बन चुके हैं। खास रोमानी शायरी में भी इन्कलाब की बातें सिर्फ फैज की शायरी में ही संभव है। 
उनकी शायरी की सात किताबों में नक्शे फरियादी (1941), दस्ते सबा (1952) और जिन्दानामा (1956) की शायरी बेफिक्र और हुस्न इश्क में डूबे कॉलेज के खूबसूरत विद्यार्थी के रोमांटिक व्यक्तित्व का आईना है, किंतु 1930 तक आते-आते किसान व मजदूर आंदोलन के साथ जुड़कर नौजवान फैज इन्कलाब की बात लिखने लगा, लिखने क्या लगा, बल्कि ऊँची आवाज में घोषणा करने लगा। फैज की शायरी में बहुत बड़ा मोड़ तब आया जब देशद्रोह के इल्जाम में उन्हें कारावास भोगना पड़ा। 
इस दौर की शायरी में ही जंजीर सिल सिल-कफस-यार ओरसन और सैयद जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। पाकिस्तान की फौजी सरकार की तानाशाही और दमन के फलस्वरूप ही शायर कहता है
हम परविरशे लोह-ओ-कलम करते रहेंगे 
जो दिल पे गुजरती हैं, उसे रकम करते रहेंगे

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